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सोयाबीन, कपास, अरहर और मूंग की बुवाई में भारी गिरावट के आसार, प्रभावित होगा उत्पादन

सोयाबीन, कपास, अरहर और मूंग की बुवाई में भारी गिरावट के आसार, प्रभावित होगा उत्पादन

किसान भाई खेत में उचित नमी देखकर ही तिलहन और दलहन की फसलों की बुवाई शुरू करें

नई दिल्ली। बारिश में देरी के चलते और प्रतिकूल मौसम के कारण तिलहन और दलहन की फसलों की बुवाई में भारी गिरावट के आसार बताए जा रहे हैं। माना जा रहा है कि सोयाबीन, अरहर और मूंग की फसल की बुवाई में रिकॉर्ड गिरावट आ सकती है। 

खरीफ सीजन की फसलों की बुवाई इस साल काफी पिछड़ रही है। तिलहन की फसलों में मुख्यतः सोयाबीन की बुवाई में पिछले साल के मुकाबले राष्ट्रीय स्तर पर 77.74 फीसदी कमी आ सकती है। 

वहीं अरहर की बुवाई में 54.87 फीसदी और मूंग की फसल बुवाई में 34.08 फीसदी की कमी आने की संभावना है। उधर बुवाई पिछड़ने के कारण कपास की फसल की बुवाई में भी 47.72 फीसदी की कमी आ सकती है। हालांकि अभी भी किसान बारिश के बाद अच्छे माहौल का इंतजार कर रहे हैं।

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तिलहन के फसलों के लिए संजीवनी है बारिश

- इन दिनों तिलहन की फसलों के लिए बारिश संजीवनी के समान है। जून के अंत तक 80 मिमी बारिश वाले क्षेत्र में सोयाबीन और कपास की बुवाई शुरू हो सकती है। जबकि दलहन की बुवाई में अभी एक सप्ताह का समय शेष है।

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दलहनी फसलों के लिए पर्याप्त नमी की जरूरत

- कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि दलहनी फसलों की बुवाई से पहले खेत में पर्याप्त नमी का ध्यान रखना आवश्यक है। नमी कम पड़ने पर किसानों को दुबारा बुवाई करनी पड़ सकती है। दुबारा बुवाई वाली फसलों से ज्यादा बेहतर उत्पादन की उम्मीद नहीं की जा सकती है। इसीलिए किसान भाई पर्याप्त नमी देखकर की बुवाई करें। ----- लोकेन्द्र नरवार

सोयाबीन की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

सोयाबीन की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि सोयाबीन की खेती ज्यादा हल्की, हल्की एवं रेतीली जमीन को छोड़कर हर तरह की जमीन पर सहजता से की जा सकती है। लेकिन, जल की निकासी वाली चिकनी दोमट मृदा वाली भूमि सोयाबीन के लिये ज्यादा अच्छी होती है। ऐसे खेत जिनमें पानी टिकता हो, उनमें सोयाबीन न बोऐं। ग्रीष्मकालीन जुताई 3 साल में कम से कम एक बार जरुर करनी चाहिये। बारिश शुरू होने पर 2 या 3 बार बखर और पाटा चलाकर भूमि को तैयार करलें। इससे नुकसान पहुंचाने वाले कीटों की समस्त अवस्थायें खत्म हो जाऐंगी। ढेला रहित एवं भुरभुरी मृदा वाली भूमि सोयाबीन के लिये उपयुक्त होती है। खेत के अंदर जलभराव से सोयाबीन की फसल पर दुष्प्रभाव पड़ता है। इसलिए ज्यादा उपज के लिये खेत में जल निकास की समुचित व्यवस्था करना जरूरी होता है। जहां तक संभव हो अंतिम बखरनी और पाटा वक्त से करें, जिससे अंकुरित खरपतवार का खात्मा हो सकें। साथ ही, मेंढ़ और कूड़ (रिज एवं फरों) तैयार कर सोयाबीन की बिजाई करें। अगर हम सोयाबीन की खेती के सन्दर्भ में बीज दर की बात करें, तो छोटे दाने वाली किस्में - 28 किलोग्राम प्रति एकड़, मध्यम दाने वाली किस्में - 32 किलोग्राम प्रति एकड़, बड़े दाने वाली किस्में - 40 किलोग्राम प्रति एकड़ 

सोयाबीन की खेती में बीजोपचार

सोयाबीन के अंकुरण को बीज एवं मृदा जनित रोग काफी प्रभावित करते हैं। इनको नियंत्रित करने हेतु बीज को थायरम या केप्टान 2 ग्राम, कार्बेडाजिम या थायोफिनेट मिथाइल 1 ग्राम मिश्रण प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये। या फिर ट्राइकोडरमा 4 ग्राम / कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति किलों ग्राम बीज की दर से उपचारित करके बिजाई करें।

कल्चर का इस्तेमाल

आपकी जानकारी के लिए फफूंदनाशक ओषधियों से बीजोपचार के बाद बीज को 5 ग्राम रायजोबियम एवं 5 ग्राम पीएसबी कल्चर प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। उपचारित बीज को छाया में रखना चाहिए और जल्दी बुवाई करनी चाहिये। याद रहे कि फफूंद नाशक ओषधि और कल्चर को एक साथ नहीं मिलाऐं। 

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सोयाबीन की बिजाई हेतु समुचित वक्त और तरीका

सोयाबीन की बिजाई हेतु जून के आखिरी सप्ताह से जुलाई के पहले सप्ताह तक की समयावधि सबसे उपयुक्त है। बिजाई के दौरान अच्छे अंकुरण के लिए जमीन में 10 सेमी गहराई तक समुचित नमी होनी चाहिये। जुलाई के पहले सप्ताह के बाद बोनी की बीज दर 5-10 प्रतिशत अधिक कर देनी चाहिए। कतारों से कतारों का फासला 30 से.मी. (बोनी किस्मों के लिये) और 45 से.मी. बड़ी किस्मों के लिये होता है। 20 कतारों के पश्चात एक कूंड़ जल निथार तथा नमी सरंक्षण हेतु रिक्त छोड़ देना चाहिए। बीज 2.50 से 3 से.मी. गहराई पर ही बोयें। सोयाबीन एक नकदी फसल है, जिसको किसान बाजार में बेचकर तुरंत धन अर्जित कर सकते हैं। 

सोयाबीन की फसल के साथ अंतरवर्तीय फसलें कौन-कौन सी हैं

सोयाबीन के साथ अंतरवर्तीय फसलों के तौर पर अरहर सोयाबीन (2:4), ज्वार सोयाबीन (2:2), मक्का सोयाबीन (2:2), तिल सोयाबीन (2:2) अंतरवर्तीय फसलें अच्छी मानी जाती हैं। 

समन्वित पोषण प्रबंधन कैसे करें

बतादें, कि बेहतर ढ़ंग से सड़ी हुई गोबर की खाद (कम्पोस्ट) 2 टन प्रति एकड़ आखिरी बखरनी के दौरान खेत में बेहतर ढ़ंग से मिला दें। साथ ही, बिजाई के दौरान 8 किलो नत्रजन 32 किलो स्फुर 8 किलो पोटाश एवं 8 किलो गंधक प्रति एकड़ के अनरूप दें। यह मात्रा मृदा परीक्षण के आधार पर कम-ज्यादा की जा सकती है। नाडेप, फास्फो कम्पोस्ट के इस्तेमाल को प्राथमिकता दें। रासायनिक उर्वरकों को कूड़ों में तकरीबन 5 से 6 से.मी. की गहराई पर डालना चाहिये। वहीं, गहरी काली मिट्टी में जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम प्रति एकड़ एवं उथली मृदाओं में 10 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से 5 से 6 फसलें लेने के उपरांत इस्तेमाल करना चाहिये। 

सोयाबीन की खेती में खरपतवार प्रबंधन कैसे करें

फसल के शुरूआती 30 से 40 दिनों तक खरपतवार को काबू करना बेहद जरूरी होता है। तो वहीं बतर आने पर डोरा अथवा कुल्फा चलाकर खरपतवार की रोकथाम करें एवं दूसरी निदाई अंकुरण होने के 30 और 45 दिन उपरांत करें। 15 से 20 दिन की खड़ी फसल में घांस कुल के खरपतवारों को समाप्त करने के लिये क्यूजेलेफोप इथाइल 400 मिली प्रति एकड़ और घास कुल और कुछ चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के लिये इमेजेथाफायर 300 मिली प्रति एकड़ की दर से छिड़काव की अनुशंसा है। नींदानाशक के उपयोग में बिजाई के पहले फ्लुक्लोरेलीन 800 मिली प्रति एकड़ अंतिम बखरनी के पूर्व खेतों में छिड़कें और दवा को बेहतर ढ़ंग से बखर चलाकर मिला दें। बिजाई के पश्चात और अंकुरण के पहले एलाक्लोर 1.6 लीटर तरल या पेंडीमेथलीन 1.2 लीटर प्रति एकड़ या मेटोलाक्लोर 800 मिली प्रति एकड़ की दर से 250 लीटर जल में मिलाकर फ्लैटफेन अथवा फ्लैटजेट नोजल की मदद से सारे खेत में छिड़काव करें। तरल खरपतवार नाशियों की जगह पर 8 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से ऐलाक्लोर दानेदार का समान भुरकाव किया जा सकता है। बिजाई के पूर्व एवं अंकुरण पूर्व वाले खरपतवार नाशियों हेतु मृदा में पर्याप्त नमी व भुरभुरापन होना काफी जरूरी है। 

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सोयाबीन की खेती में सिंचाई किस तरह करें

सोयाबीन खरीफ मौसम की फसल होने की वजह से आमतौर पर सोयाबीन को सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है। फलियों में दाना भरण के दौरान मतलब कि सितंबर माह में अगर खेत में नमी पर्याप्त न हो तो आवश्यकतानुसार एक या दो हल्की सिंचाई करना सोयाबीन की बेहतरीन पैदावार लेने के लिए फायदेमंद है। 

सोयाबीन की फसल में लगने वाले कीट

सोयाबीन की फसल में बीज और छोटे पौधे को हानि पहुंचाने वाला नीलाभृंग (ब्लूबीटल) पत्ते खाने वाली इल्लियां, तने को दुष्प्रभावित करने वाली तने की मक्खी एवं चक्रभृंग (गर्डल बीटल) आदि का संक्रमण होता है। कीटों के आक्रमण से 5 से 50 प्रतिशत तक उपज में गिरावट आ जाती है। इन कीटों की रोकथाम करने के उपाय निम्नलिखित हैं: 

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कृषिगत स्तर पर कीटों की रोकथाम

खेती के स्तर पर यदि हम कीट नियंत्रण की बात करें तो खेत की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करना। मानसून की वर्षा के पूर्व बिजाई ना करना अति आवश्यक बातें हैं। साथ ही, मानसून आगमन के बाद बिजाई शीघ्रता से संपन्न करें। खेत नींदा रहित ही रखें। सोयाबीन की फसल के साथ ज्वार या मक्का की अंतरवर्तीय फसल करें। खेतों को फसल अवशेषों से पूर्णतय मुक्त रखें और मेढ़ों को बिल्कुल साफ रखें। 

रासायनिक स्तर पर कीटों की रोकथाम

सोयाबीन की बिजाई के दौरान थयोमिथोक्जाम 70 डब्ल्यू.एस. 3 ग्राम दवा प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करने से शुरूआती कीटों की रोकथाम होती है। वहीं, अंकुरण की शुरुआत होते ही नीले भृंग कीट की रोकथाम के लिये क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत या मिथाइल पैराथियान (फालीडाल 2 प्रतिशत या धानुडाल 2 प्रतिशत) 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से भुरकाव करें। विभिन्न तरह की इल्लियां पत्ती, छोटी फलियों एवं फलों को खाके खत्म कर देती हैं। इन कीटों की रोकथाम करने के लिये घुलनशील दवाओं की निम्नलिखित मात्रा 300 से 325 लीटर जल में घोल कर छिड़काव करें। हरी इल्ली की एक प्रजाति जिसका सिर पतला एवं पिछला हिस्सा चौड़ा होता है। सोयाबीन के फूलों एवं फलियों को खाकर खत्म कर देती है, जिससे पौधे फली विहीन हो जाते हैं। फसल बांझ होने जैसी लगती है। सोयाबीन की फसल पर तना मक्खी, चक्रभृंग, माहो हरी इल्ली तकरीबन एक साथ ही आक्रमण करते हैं। अत: पहला छिड़काव 25 से 30 दिन पर और दूसरा छिड़काव 40-45 दिन का फसल पर जरूर करें। 

जैविक तौर पर कीट नियंत्रण

कीटों की शुरुआती अवस्था में जैविक कीट पर काबू करने के लिए बी.टी. एवं व्यूवेरीया बेसियाना आधारित जैविक कीटनाशक 400 ग्राम या 400 मि.ली. प्रति एकड़ की दर से बोवाई के 35-40 दिन तथा 50-55 दिनों के उपरांत छिड़काव करें। एन.पी.वी. का 250 एल.ई. समतुल्य का 200 लीटर जल में घोल बनाके प्रति एकड़ छिड़काव करें। रासायनिक कीटनाशक के स्थान पर जैविक कीटनाशकों को परिवर्तित कर डालना फायदेमंद होता है। गर्डल बीटल प्रभावित इलाकों में जे.एस. 335, जे.एस. 80-21, जे.एस. 90-41 लगाऐं। निंदाई के दौरान प्रभावित टहनियां तोड़कर बर्बाद कर दें। कटाई के उपरांत बंडलों को प्रत्यक्ष तौर पर गहाई स्थल पर ले जाएं। तने की मक्खी के प्रकोप के समय छिड़काव शीघ्र करें। 

सोयाबीन की फसल की कटाई और गहाई

ज्यादातर पत्तियों के सूख कर झड़ जाने की स्थिति में और 10 प्रतिशत फलियों के सूख कर भूरा होने पर फसल की कटाई हेतु तैयार हो जाती है। पंजाब 1 पकने के 4-5 दिन बाद, जे.एस. 335, जे.एस. 76-205 एवं जे.एस. 72-44, जेएस 75-46 आदि सूखने के तकरीबन 10 दिन उपरांत चटकना शुरू हो जाती है। कटाई के उपरांत गट्ठों को 2-3 दिन तक सुखाना जरूरी है। बतादें, कि फसल कटाई के उपरांत जब फसल पूर्णतय सूख जाए तो गहाई कर दोनों को अलग कर देना चाहिए। फसल गहाई बैलों, थ्रेसर, ट्रेक्टर तथा हाथ द्वारा लकड़ी से पीटकर करना चाहिए। जहां तक मुमकिन हो बीज के लिये गहाई लकड़ी से पीट कर करना चाहिये, जिससे अंकुरण को हानि न पहुँचे।

मानसून सीजन में तेजी से बढ़ने वाली ये 5 अच्छी फसलें

मानसून सीजन में तेजी से बढ़ने वाली ये 5 अच्छी फसलें

मानसून का मौसम किसान भाइयों के लिए कुदरती वरदान के समान होता है। मानसून के मौसम होने वाली बरसात से उन स्थानों पर भी फसल उगाई जा सकती है, जहां पर सिंचाई के साधन नहीं हैं। पहाड़ी और पठारी इलाकों में सिंचाई के साधन नही होते हैं। इन स्थानों पर मानसून की कुछ ऐसी फसले उगाई जा सकतीं हैं जो कम पानी में होतीं हों। इस तरह की फसलों में दलहन की फसलें प्रमुख हैं। इसके अलावा कुछ फसलें ऐसी भी हैं जो अधिक पानी में भी उगाई जा सकतीं हैं। वो फसलें केवल मानसून में ही की जा सकतीं हैं। आइए जानते हैं कि कौन-कौन सी फसलें मानसून के दौरान ली जा सकतीं हैं।

मानसून सीजन में बढ़ने वाली 5 फसलें:

1.गन्ना की फसल

गन्ना कॉमर्शियल फसल है, इसे नकदी फसल भी कहा जाता है। गन्ने  की फसल के लिए 32 से 38 डिग्री सेल्सियस का तापमान होना चाहिये। ऐसा मौसम मानसून में ही होता है। गन्ने की फसल के लिए पानी की भी काफी आवश्यकता होती है। उसके लिए मानसून से होने वाली बरसात से पानी मिल जाता है। मानसून में तैयार होकर यह फसल सर्दियों की शुरुआत में कटने के लिए तैयार हो जाती है। फसल पकने के लिए लगभग 15 डिग्री सेल्सियश तापमान की आवश्यकता होती है। गन्ने की फसल केवल मानसून में ही ली जा सकती है। इसकी फसल तैयार होने के लिए उमस भरी गर्मी और बरसात का मौसम जरूरी होता है। गन्ने की फसल पश्चिमोत्तर भारत, समुद्री किनारे वाले राज्य, मध्य भारत और मध्य उत्तर और पूर्वोत्तर के क्षेत्रों में अधिक होती है। सबसे अधिक गन्ने का उत्पादन तमिलनाडु राज्य  में होता है। देश में 80 प्रतिशत चीनी का उत्पादन गन्ने से ही किया जाता  है। इसके अतिरिक्त अल्कोहल, गुड़, एथेनाल आदि भी व्यावसायिक स्तर पर बनाया जाता है।  चीनी की अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक मांग को देखते हुए किसानों के लिए यह फसल अत्यंत लाभकारी होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=XeAxwmy6F0I&t[/embed]

2. चावल यानी धान की फसल

भारत चावल की पैदावार का बहुत बड़ा उत्पादक देश है। देश की कृषि भूमि की एक तिहाई भूमि में चावल यानी धान की खेती की जाती है। चावल की पैदावार का आधा हिस्सा भारत में ही उपयोग किया जाता है। भारत के लगभग सभी राज्यों में चावल की खेती की जाती है। चावलों का विदेशों में निर्यात भी किया जाता है। चावल की खेती मानसून में ही की जाती है क्योंकि इसकी खेती के लिए 25 डिग्री सेल्सियश के आसपास तापमान की आवश्यकता होती है और कम से कम 100 सेमी वर्षा की आवश्यकता होती है। मानसून से पानी मिलने के कारण इसकी खेती में लागत भी कम आती है। भारत के अधिकांश राज्यों व तटवर्ती क्षेत्रों में चावल की खेती की जाती है। भारत में धान की खेती पारंपरिक तरीकों से की जाती है। इससे यहां पर चावल की पैदावार अच्छी होती है। पूरे भारत में तीन राज्यों  पंजाब,पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक चावल की खेती की जाती है। पर्वतीय इलाकों में होने वाले बासमती चावलों की क्वालिटी सबसे अच्छी मानी जाती है। इन चावलों का विदेशों को निर्यात किया जाता है। इनमें देहरादून का बासमती चावल विदेशों में प्रसिद्ध है। इसके अलावा पंजाब और हरियाणा में भी चावल केवल निर्यात के लिए उगाया जाता है क्योंकि यहां के लोग अधिकांश गेहूं को ही खाने मे इस्तेमाल करते हैं। चावल के निर्यात से पंजाब और हरियाणा के किसानों को काफी आय प्राप्त होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=QceRgfaLAOA&t[/embed]

3. कपास की फसल

कपास की खेती भी मानसून के सीजन में की जाती है। कपास को सूती धागों के लिए बहुमूल्य माना जाता है और इसके बीज को बिनौला कहते हैं। जिसके तेल का व्यावसायिक प्रयोग होता है। कपास मानसून पर आधारित कटिबंधीय और उष्ण कटिबंधीय फसल है। कपास के व्यापार को देखते हुए विश्व में इसे सफेद सोना के नाम से जानते हैं। कपास के उत्पादन में भारत विश्व का दूसरा बड़ा देश है। कपास की खेती के लिए 21 से 30 डिग्री सेल्सियश तापमान और 51 से 100 सेमी तक वर्षा की जरूरत होती है। मानसून के दौरान 75 प्रतिशत वर्षा हो जाये तो कपास की फसल मानसून के दौरान ही तैयार हो जाती है।  कपास की खेती से तीन तरह के रेशे वाली रुई प्राप्त होती है। उसी के आधार पर कपास की कीमत बाजार में लगायी जाती है। गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश,हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक,तमिलनाडु और उड़ीसा राज्यों में सबसे अधिक कपास की खेती होती है। एक अनुमान के अनुसार पिछले सीजन में गुजरात में सबसे अधिक कपास का उत्पादन हुआ था। अमेरिका भारतीय कपास का सबसे बड़ा आयातक है। कपास का व्यावसायिक इस्तेमाल होने के कारण इसकी खेती से बहुत अधिक आय होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=nuY7GkZJ4LY[/embed]

4.मक्का की फसल

मक्का की खेती पूरे विश्व में की जाती है। हमारे देश में मक्का को खरीफ की फसल के रूप में जाना जाता है लेकिन अब इसकी खेती साल में तीन बार की जाती है। वैसे मक्का की खेती की अगैती फसल की बुवाई मई माह में की जाती है। जबकि पारम्परिक सीजन वाली मक्के की बुवाई जुलाई माह में की जाती है। मक्का की खेती के लिए उष्ण जलवायु सबसे उपयुक्त रहती है। गर्म मौसम की फसल है और मक्का की फसल के अंकुरण के लिए रात-दिन अच्छा तापमान होना चाहिये। मक्के की फसल के लिए शुरू के दिनों में भूमि ंमें अच्छी नमी भी होनी चाहिए। फसल के उगाने के लिए 30 डिग्री सेल्सियश का तापमान जरूरी है। इसके विकास के लिए लगभग तीन से चार माह तक इसी तरह का मौसम चाहिये। मक्का की खेती के लिए प्रत्येक 15 दिन में पानी की आवश्यकता होती है।मक्का के अंकुरण से लेकर फसल की पकाई तक कम से कम 6 बार पानी यानी सिंचाई की आवश्यकता होती है  अर्थात मक्का को 60 से 120 सेमी वर्षा की आवश्यकता होती है। मानसून सीजन में यदि पानी सही समय पर बरसता रहता है तो कोई बात नहीं वरना सिंचाई करने की आवश्यकता होती है। अन्यथा मक्का की फसल कमजोर हो जायेगी। भारत में उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, कर्नाटक में सबसे अधिक मक्का की खेती होती है। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, जम्मू कश्मीर और हिमाचल में भी इसकी खेती की जाती है।

5.सोयाबीन की फसल

सोयाबीन ऐसा कृषि पदार्थ है, जिसका कई प्रकार से उपयोग किया जाता है। साधारण तौर पर सोयाबीन को दलहन की फसल माना जाता है। लेकिन इसका तिलहन के रूप में बहुत अधिक प्रयोग होने के कारण इसका व्यापारिक महत्व अधिक है। यहां तक कि इसकी खल से सोया बड़ी तैयार की जाती है, जिसे सब्जी के रूप में प्रमुखता से इस्तेमाल किया जाता है। सोयाबीन में प्रोटीन, कार्बोहाइडेट और वसा अधिक होने के कारण शाकाहारी मनुष्यों के लिए यह बहुत ही फायदे वाला होता है। इसलिये सोयाबीन की बाजार में डिमांड बहुत अधिक है। इस कारण इसकी खेती करना लाभदायक है। सोयाबीन की खेती मानसून के दौरान ही होती है। इसकी बुवाई जुलाई के अन्तिम सप्ताह में सबसे उपयुक्त होती है। इसकी फसल उष्ण जलवायु यानी उमस व गर्मी तथा नमी वाले मौसम में की जाती है। इसकी फसल के लिए 30-32 डिग्री सेल्सियश तापमान की आवश्यकता होती है और फसल पकने के समय 15 डिग्री सेल्सियश के तापमान की जरूरत होती है।  इस फसल के लिए 600 से 850 मिलीमीटर तक वर्षा चाहिये। पकने के समय कम तापमान की आवश्यकता होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=AUGeKmt9NZc&t[/embed]